Saturday 9 May 2009

नव उदारवादी पूंजीवाद-बाज़ारवाद की व्यवस्थागत बीमारी का नतीजा है यह वैश्विक आर्थिक संकट

लगातार गहराते वैश्विक आर्थिक संकट(Global Financial Crisis) के बीच हाल ही में प्रकाशित विश्व बैंक(World Bank) की एक ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ इस साल वैश्विक जी डी पी(Global G।D.P.) की वृद्धि अपनी क्षमता से 5 फीसदी नीचे रह सकती है . अब इस में कोई संदेह नहीं रह गया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था गंभीर आर्थिक मंदी के संकट में फंस चुकी है. इस वैश्विक मंदी का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ना अब बिलकुल यक़ीनी हो गया है.तकनीकी और पारिभाषिक तौर पर यह सही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में नहीं है लेकिन यह पूरी बहस इसलिए बेमानी है कि शास्त्रीय तौर पर मंदी की चपेट में न होने के बावजूद अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा काफ़ी हद तक मंदी जैसी स्थिति से गुज़र रहा है. पिछले कुछ महीनों में जिस तरह से अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से लाखों कर्मचारियों व श्रमिकों को निकाला दिया गया है और अभी भी निकाला जा रहा है. यही नहीं, चाहे वह औद्योगिक उत्पादन खासकर मैन्यूफैक्चरिंग का क्षेत्र हो या निर्यात का, शेयर बाजार हो या नए निवेश का सवाल-हर ओर से लगातार निराशाजनक खबरें आ रही हैं.योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया के अनुसार 2008-09 में हमारी वृध्दि दर 6.5 फीसदी से 6.7 फीसदी के बीच रही. और उनके मुताबिक़ अगले वित्त वर्ष 2009-10 के दौरान भी वृध्दि दर यही रहेगी और कैलेंडर वर्ष के आधार पर 2009 पिछले साल के मुक़ाबले उल्लेखनीय रूप से बुरा होगा।वैसे मौजूदा वैश्विक परिस्थितियों में 6 से 6.5 प्रतिशत की वृद्धि दर भी कम नहीं है लेकिन इसे लेकर निश्चिंत होने या अर्थव्यवस्था की बिगड़ती स्थिति पर गुलाबी पर्दा डालने की भी ज़रूरत नहीं है. दरअसल, यह वृद्धि दर भी अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति की सूचक नहीं है. तथ्य यह है कि अर्थव्यवस्था का एक सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र- मैन्यूफैक्चरिंग पिछले अक्तूबर से लगातार बदतर प्रदर्शन कर रहा है. याद रहे कि मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र के प्रदर्शन से लाखों श्रमिकों की रोजी -रोटी जुड़ी हुई है। इसी तरह, निर्माण और रीयल इस्टेट क्षेत्र की स्थिति भी लगातार बिगड़ती जा रही है और इसका असर लाखों मजदूरों की आजीविका पर पड़ रहा है. निर्यात का हाल यह है कि अक्टूबर के बाद से पिछले चार महीनों में निर्यात की वृद्धि दर लगातार नकारात्मक बनी हुई है.इसके अलावा पिछले कुछ महीनों में विदेशी पूंजी का प्रवाह न सिर्फ कम हुआ है बल्कि काफी बड़े पैमाने पर विदेशी वित्तीय पूंजी देश से बाहर जा रही है. इसी वैश्विक आर्थिक संकट के कारण विकासशील देशों में प्रवासी श्रमिकों द्वारा भेजी जानेवाली आय में भी काफी गिरावट के आसार हैं. इस सबका असर रूपए की कीमत पर पड़ रहा है जो डालर के मुकाबले गिरकर 52 रूपए प्रति डालर के आसपास पहुंच गया है। लेकिन इस सबसे अधिक और बड़ी चिंता की बात यह है कि वैश्विक मंदी और उसके बीच लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था की असली कीमत लाखों श्रमिकों और कर्मचारियों को अपना रोजगार गंवाकर चुकानी पड़ रही है.दूसरी तरफ यह भी क़यास किया जा रहा है की मौजूदा वैश्विक मंदी के कारण विकासशील देशों में लगभग 4.6 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा के नीचे चले जायेंगे. यकीनन, ऐसे लोगों की एक बहुत बड़ी तादाद भारत में भी होगी जो मंदी के कारण रोजगार गंवाकर या मजदूरी में कटौती के कारण एक बार फिर ग़रीबी रेखा के नीचे चली जाएइगी. इसकी वजह यह है कि भारत में ऐसे लोगों की तादाद कुल आबादी में काफ़ी है जो बिल्कुल ग़रीबी रेखा के उपर हैं और किसी भी छोटे-बड़े आर्थिक/वित्तीय झटके से तुरंत ग़रीबी रेखा के नीचे पहुंच जाते हैं. कहने की ज़रूरत नहीं है कि मौजूदा मंदी जैसी स्थिति हाशिए पर पड़े ऐसे लोगों को फिर से गरीबी रेखा के नीचे ढकेल देगी.वैश्विक पूँजी के बेलगाम तौर-तरीकों के कारण पैदा इस संकट और इन सब सारी बीमारियों की जड़ नव उदारवादी आर्थिक नीति (Neo-Libral Economic Policy) के खिलाफ अब छात्रों, बुद्धजीवियों, किसानों, श्रमिकों और महिलाओं को आवाज़ बुलंद करना होगा॥

साभार: आतिफ जी

भूख का अर्थशास्त्र

यूँ तो भूख सबको लगती है, बीमारियाँ सबको घेरती हैं। भय सबको सताता है और मौत सबको आती है. मगर इस भूख का एहसास उसे अधिक होता है जिसे भूखे पेट सोना पड़ता है. ख़ाली पेट चिर निद्रा में जाने का संताप सिर्फ वही लोग समझ सकते हैं 'जिनके हाथों में लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं'... हम और आप जैसे अघाए हुए लोग नहीं. वे तो क़तई नहीं जिनके लिए भूख एक सच नहीं सिर्फ एक अर्थशास्त्र का विषय भर है.भूख का जो अर्थशास्त्र होता है उस पर विचार करने के लिए बहुत सारे विशेषज्ञ हैं जो जहाजों में बैठ कर पूरी दुनिया में सेमिनारों आदि में अपने उच्च विचार व्यक्त करते रहते हैं कि ग़रीबी और भूख से कैसे निपटा जाए. वे भरपेट नाश्ता कर के आते हैं, लंच में उनके लिए थालियां सजी होती है और डिनर में भोजन का शाही इंतजाम होता है.ये लोग भूख को आंकडों में बदल देते हैं. मौत भी इनके लिए गिनती होती है. बहुत सारे न समझ में आने वाले अर्थशास्त्र के समीकरणों के ज़रिये ये हमें समझाते हैं कि इस आंकडें में वह आंकडा मिला दो तो भूख और गरीबी के सारे पापों का अंत हो जाएगा. दिक्क़त सिर्फ यह है कि आंकडों से पेट भरता नहीं हैं.जिसे ग़रीबी रेखा कहा जाता है वह दरअसल मौत की या मौत से भी बदतर ज़िन्दगी का एक संधि बिंदु है जहां करोड़ों लोग जन्मते हैं और इसी बिंदु पर उनकी ज़िन्दगी स्थगित हो जाती है. होने को अपने देश में बच्चों के लिए मिड डे मील और अभागों के लिए लंगर की शैली में रोटी या भात की व्यवस्था की जाती है लेकिन यह पेट तो भरती है मगर कुपोषण और अल्प पोषण के शिकारों की संख्या बढाती हैं. जो बच्चे स्कूल जाते ही इसलिए हैं कि उन्हें एक वक्त का भोजन मिल जाएं वे पढाई का मतलब पेट भरने से समझते है और जिस तरह का भोजन उन्हें नसीब होता है उससे उन बेचारों की जवानी तो आती नहीं, देखते देखते वे बूढ़े हो जाते हैं और भूख की यह विरासत अपनी अगली पीढ़ियों को सौंप कर चले जाते हैं.जितना पैसा सरकारी और दुनिया की तथाकथित कल्याणकारी संस्थाओं द्वारा भूख और ग़रीबी के अध्ययन पर खर्च किया जाता है वह अगर सीधा ग़रीब की दहलीज़ तक पहुंचा दिया जाए तो आधी समस्या वैसे ही हल हो जाएगी.हमारा देश अब डेढ़ अरब नागरिकों का देश बनने जा रहा है और इनमें से कम से कम चालीस करोड़ लोग ऐसे है जिन्हें ग़रीबी की सरकारी सीमा रेखा के नीचे माना जाता है. यह परिभाषा भी अपने आप में एक माज़ाक़ है. जिसे दिन भर में 2200 कैलोरी के बराबर भोजन मिल जाए और जिसकी औसतन पांच सदस्यों के परिवार की आमदनी महीने में चार सौ चौदह रुपए से ज्यादा हो उसे अपनी सरकार ग़रीब नहीं मानती. 2200 कैलोरी का मतलब है पांच रोटियां और एक कटोरी दाल या काम चलाऊ तरकारी. जो लोग इस आधार पर ग़रीब और अमीर के बीच का विभाजन करते हैं वे असल में हमारे समाज और देश दोनों के अपराधी हैं और उनके लिए जो भी सज़ा तय की जाए वह कम ही होगी.हमारे देश में अनाज की कमी नहीं है. भारत में ग़रीब और अमीर के बीच का फासला इतना असाध्य है कि उसके बारे में सोच कर डर लगता है. एक तरफ लाखों करोड़ के ख़ज़ाने वाले रईस हैं जिन्हें पोस्टर छाप कर बताया जाता है कि भारत अब विकासशील नहीं, विकसित देश है. दूसरी ओर गांवों में खेतों और शहरों में फुटपाथों पर सोने वाले लोग है जिनके लिए पांच रुपए का सिक्का अमावस के चांद की तरह होता है. भारत विकासशील नहीं, विनाशशील देश है और जब तक यह सच हम स्वीकार नहीं करेंगे तब तक हम खुद से और अपनी आत्मा से सरेआम झूठ बोलते रहेंगे॥

साभार: आतिफ जी