Saturday 9 May 2009

भूख का अर्थशास्त्र

यूँ तो भूख सबको लगती है, बीमारियाँ सबको घेरती हैं। भय सबको सताता है और मौत सबको आती है. मगर इस भूख का एहसास उसे अधिक होता है जिसे भूखे पेट सोना पड़ता है. ख़ाली पेट चिर निद्रा में जाने का संताप सिर्फ वही लोग समझ सकते हैं 'जिनके हाथों में लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं'... हम और आप जैसे अघाए हुए लोग नहीं. वे तो क़तई नहीं जिनके लिए भूख एक सच नहीं सिर्फ एक अर्थशास्त्र का विषय भर है.भूख का जो अर्थशास्त्र होता है उस पर विचार करने के लिए बहुत सारे विशेषज्ञ हैं जो जहाजों में बैठ कर पूरी दुनिया में सेमिनारों आदि में अपने उच्च विचार व्यक्त करते रहते हैं कि ग़रीबी और भूख से कैसे निपटा जाए. वे भरपेट नाश्ता कर के आते हैं, लंच में उनके लिए थालियां सजी होती है और डिनर में भोजन का शाही इंतजाम होता है.ये लोग भूख को आंकडों में बदल देते हैं. मौत भी इनके लिए गिनती होती है. बहुत सारे न समझ में आने वाले अर्थशास्त्र के समीकरणों के ज़रिये ये हमें समझाते हैं कि इस आंकडें में वह आंकडा मिला दो तो भूख और गरीबी के सारे पापों का अंत हो जाएगा. दिक्क़त सिर्फ यह है कि आंकडों से पेट भरता नहीं हैं.जिसे ग़रीबी रेखा कहा जाता है वह दरअसल मौत की या मौत से भी बदतर ज़िन्दगी का एक संधि बिंदु है जहां करोड़ों लोग जन्मते हैं और इसी बिंदु पर उनकी ज़िन्दगी स्थगित हो जाती है. होने को अपने देश में बच्चों के लिए मिड डे मील और अभागों के लिए लंगर की शैली में रोटी या भात की व्यवस्था की जाती है लेकिन यह पेट तो भरती है मगर कुपोषण और अल्प पोषण के शिकारों की संख्या बढाती हैं. जो बच्चे स्कूल जाते ही इसलिए हैं कि उन्हें एक वक्त का भोजन मिल जाएं वे पढाई का मतलब पेट भरने से समझते है और जिस तरह का भोजन उन्हें नसीब होता है उससे उन बेचारों की जवानी तो आती नहीं, देखते देखते वे बूढ़े हो जाते हैं और भूख की यह विरासत अपनी अगली पीढ़ियों को सौंप कर चले जाते हैं.जितना पैसा सरकारी और दुनिया की तथाकथित कल्याणकारी संस्थाओं द्वारा भूख और ग़रीबी के अध्ययन पर खर्च किया जाता है वह अगर सीधा ग़रीब की दहलीज़ तक पहुंचा दिया जाए तो आधी समस्या वैसे ही हल हो जाएगी.हमारा देश अब डेढ़ अरब नागरिकों का देश बनने जा रहा है और इनमें से कम से कम चालीस करोड़ लोग ऐसे है जिन्हें ग़रीबी की सरकारी सीमा रेखा के नीचे माना जाता है. यह परिभाषा भी अपने आप में एक माज़ाक़ है. जिसे दिन भर में 2200 कैलोरी के बराबर भोजन मिल जाए और जिसकी औसतन पांच सदस्यों के परिवार की आमदनी महीने में चार सौ चौदह रुपए से ज्यादा हो उसे अपनी सरकार ग़रीब नहीं मानती. 2200 कैलोरी का मतलब है पांच रोटियां और एक कटोरी दाल या काम चलाऊ तरकारी. जो लोग इस आधार पर ग़रीब और अमीर के बीच का विभाजन करते हैं वे असल में हमारे समाज और देश दोनों के अपराधी हैं और उनके लिए जो भी सज़ा तय की जाए वह कम ही होगी.हमारे देश में अनाज की कमी नहीं है. भारत में ग़रीब और अमीर के बीच का फासला इतना असाध्य है कि उसके बारे में सोच कर डर लगता है. एक तरफ लाखों करोड़ के ख़ज़ाने वाले रईस हैं जिन्हें पोस्टर छाप कर बताया जाता है कि भारत अब विकासशील नहीं, विकसित देश है. दूसरी ओर गांवों में खेतों और शहरों में फुटपाथों पर सोने वाले लोग है जिनके लिए पांच रुपए का सिक्का अमावस के चांद की तरह होता है. भारत विकासशील नहीं, विनाशशील देश है और जब तक यह सच हम स्वीकार नहीं करेंगे तब तक हम खुद से और अपनी आत्मा से सरेआम झूठ बोलते रहेंगे॥

साभार: आतिफ जी

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